Edited By Isha, Updated: 03 Sep, 2024 01:08 PM
रीब 15 वर्ष की आयु में विशाखापट्टनम में रेल की चपेट में आने से उन्होंने अपना बाया पैर गंवा दिया जिसके कुछ समय बाद उन्होंने बैडमिंटन खेलना शुरू किया । उनकी इस उपलब्धि पर गांव में खुशी का माहौल है और लड्डू बांटकर खुशी का इजहार किया जा रहा है।
चरखी दादरी(पुनीत) : पेरिस पैरा ओलंपिक में बैडमिंटन एकल प्रतिस्पर्धा में गोल्ड मेडल लेकर भारत का नाम रोशन करने वाले हरियाणा के चरखी दादरी जिले के गांव नांधा निवासी नितेश लुहाच को फूटबॉल के अच्छे खिलाड़ी थे। करीब 15 वर्ष की आयु में विशाखापट्टनम में रेल की चपेट में आने से उन्होंने अपना बाया पैर गंवा दिया जिसके कुछ समय बाद उन्होंने बैडमिंटन खेलना शुरू किया । उनकी इस उपलब्धि पर गांव में खुशी का माहौल है और लड्डू बांटकर खुशी का इजहार किया जा रहा है।
बता दे कि नितेश के पिता इंडियन नेवी से रिटायर्ड है और जयपुर में रहते हैं। नितेश प्रारंभिम आठ साल तक गांव में ही अपने ताऊ गुणपाल के पास रहे उसके बाद पिता की पोस्टिंग के अनुसार अलग-अलग शहरों में जाना पड़ा। नितेश के चाचा सत्येंद्र व ताऊ गुणपाल ने नितेश के दिव्यांग होने की घटना का जिक्र करते हुए बताया कि नितेश जब करीब 15 साल के थे उस दौरान उनके पिता बिजेंद्र सिंह की विशाखापट्टनम में पोस्टिंग थी।
उस दौरान वे फूटबॉल खेलते थे और एक रोज शाम को फूटबॉल खेलने के लिए गए हुए थे। उस दिन उनके एक दोस्त का जन्मदिन था जिसके पिता रेलवे में नौकरी करते थे । नितेश रेलवे यार्ड के समीप उनके क्वार्टर पर गया था और वापिस आते समय रेलवे यार्ड में रेल खड़ी थी और वह रेले के नीचे से पटरी पार कर रहा था। उस दौरान रेल चल पड़ी जिससे वह चपेट में आ गया और उसका पैर जांघ के समीप से अलग हो गया।
उसके बाद उसे रिकवर होने के लिए बेड रेस्ट लिया और बाद में पैर गंवाने के साथ ही फूटबॉल भी छुट गया। बाद में नितेश ने टाइम पास करने के लिए बैडमिंटन खेलना शुरू किया था लेकिन बाद में उसकी प्रतिभा को कॉलेज में कोच ने पहचाना और उसे निखारने का काम किया। जिसके बाद से वह आगे बढ़ता चला गया और आज देश के लिए गोल्ड जीतकर साबित कर दिया है कि बिना पैर के भी ये दुनिया नापी जा सकती है।
बीजिंग पैरा ओलंपिक में जीता था सिल्वर
नितेश ने बीजिंग पैरा ओलंपिक में भी कमाल का प्रदर्शन किया था और उन्होंने सिल्वर मेडल हासिल किया था। लेकिन उसकी तपन्ना देश के लिए गोल्ड जितने की थी। जिसके चलते उसने और अधिक कड़ी मेहनत की और जो सपना बीजिंग में अधूरा रह गया था उसे पेरिस में पूरा करके दिखाया है।