कैंपर व फ्रिज ने लिया घड़े का स्थान, बिगड़ रहा स्वास्थ्य, उजड़ रहा रोजगार

Edited By vinod kumar, Updated: 18 Nov, 2019 05:28 PM

camper fridges took place of pitcher health deteriorating ruining employment

जैसे-जैसे जमाना बदल रहा है वैसे-वैसे मनुष्य की दिनचर्या में बदलाव आता जा रहा है। मनुष्य इस वैज्ञानिक युग में पुरानी वस्तुओं को छोड़कर नई सुख-सुविधाओं की ओर ज्यादा अग्रसर हो रहा है। जहां पुराने समय में घड़े के पानी को स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम...

कालांवाली(प्रजापति): जैसे-जैसे जमाना बदल रहा है वैसे-वैसे मनुष्य की दिनचर्या में बदलाव आता जा रहा है। मनुष्य इस वैज्ञानिक युग में पुरानी वस्तुओं को छोड़कर नई सुख-सुविधाओं की ओर ज्यादा अग्रसर हो रहा है। जहां पुराने समय में घड़े के पानी को स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम माना जाता था, वहीं अब घड़े का स्थान फ्रिज तथा कैंपर ने लिया है। बड़े-बुजुर्गों का भी कहना है कि माटी के घड़े का पानी हर लिहाज से स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है।

सब लोग इस बारे में बात तो करते हैं, लेकिन आधुनिकता की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में इतना समय किसी के पास नहीं है कि लोग माटी के बने घड़ों का इस्तेमाल करें। शहरी क्षेत्र के अलावा अब देहात में भी फ्रिज, वाटर कूलर, मिक्सी, चाइनीज आइटम जैसे आधुनिक साजो-सामान का चलन है। ऐसे में माटी के बने बर्तनों की बिकवाली दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है, जिससे प्रजापत परिवारों का यह धंधा बंद होने के कगार पर है। 

आधुनिकता के ऐसे तमाम साजो-सामान के चलते प्रजापत परिवारों का पुश्तैनी धंधा ठंडे बस्ते में चला गया है। दशकभर पहले एक प्रजापत अपने इस धंधे से अपने पूरे परिवार के गुजर-बसर करने से अधिक कमा लेता था। अब स्थिति यह है कि स्वयं के पेट नहीं भर पाते। यही कारण है कि लाचारी में नई पीढ़ी के लोग अपने इस धंधे से मुंह मोड़ रहे हैं। पिछले एक दशक में ही बहुत से लोग यह धंधा छोडऩे पर लाचार हो गए। कुछेक लोग आज भी अपने हुनर के चलते बाजार से मुकाबला कर रहे हैं।

ऐसे ही एक कुम्हार राजू ने बताया कि आधुनिक साजो-सामान के इस्तेमाल होने के बाद अब घड़े, कुंडी, सुराही व अन्य माटी के बर्तनों का उपयोग लगभग बंद हो गया है। कालांवाली में भी काफी तादाद में प्रजापत परिवार रहते हैं। उन्होंने बताया कि न चाहते हुए भी 80 फीसदी से अधिक प्रजापत अपने धंधे को छोड़ चुके हैं। कुछ ऐसे प्रजापत भी हैं जो आधुनिकता की आंधी के बीच भी अपने धंधे को जीवित रखे हुए हैं। ऐसे ही एक कुम्हार अंकुर ने बताया कि अपने बाप से माटी के बर्तन बनाने की कला उन्हें विरासत में मिली है। उन्होंने बताया कि पिछले दो दशक से माटी के बर्तन बनाकर बेच रहा है। अंकुर ने बताया कि आज से दशक भर पहले 150 से अधिक घड़ों की बिक्री हो जाती थी।

अब स्थिति यह है कि 20-25 घड़े ही बिक पाते हैं। जाहिर है ऐसे में माटी के बर्तनों की बिकवाली में काफी कमी आई है। उन्होंने बताया कि आज घड़े का स्थान आज फ्रिज, सुराही का स्थान कैम्पर ने, कुंडी का स्थान मिक्सी ने, हांडी का स्थान कुकर ने ले लिया है। हालांकि लोगों को इस बात की जानकारी भी है कि घड़े व सुराही का पानी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है, लेकिन फिर भी लोग अब कुछ सहज जीने के आदी हो गए हैं। एक अन्य कुम्हार राज कुमार ने बताया कि वे अपने इस विरासत में मिले धंधे को छोडऩे की स्थिति में भी नहीं हैं। 

कुछ वर्ष पहले तक अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी, लेकिन अब तो रोटी के भी लाले पड़ गए हैं। फिर भी कुछ लोग आज भी माटी के बर्तनों का ही इस्तेमाल करते हैं पर कुल मिलाकर माटी के बर्तनों की बिक्री में काफी हद तक गिरावट आई है। जाहिर है इसका असर स्वास्थ्य दृष्टि से लोगों पर और व्यावसायिक दृष्टि से प्रजापत परिवारों पर पड़ा है।

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