अपने सपने को ऐसे पूरा किया अनु ने

Edited By Updated: 16 Feb, 2016 05:41 PM

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जिद और जुनून की ऐसी मिसाल एक दलित लड़की अनु चिनिया ने पेश की है। उसका सपना था उन बच्चो के

हिसार (दिनेश भारती) : जिद और जुनून की ऐसी मिसाल एक दलित लड़की अनु चिनिया ने पेश की है। उसका सपना था उन बच्चो के हाथो में किताब देखना जो भीख के लिए कटोरा लिए गिड़गिड़ाते रहते हैं। उसने अपने सपने को साकार करना जूनून बना लिया। चार लोगों के साथ मिलकर बना डाली संस्था भीख नहींं किताब दो। आज इस संस्था के करीब ढाई सौ बच्चे भीख मांगना छोड़कर सरकारी स्कूलों में शिक्षा ले रहे हैं। 

इसके लिए अनु ने बड़ी चुनौतियों का सामना किया। उसकी शादी टूट गई सरकारी नौकरी भी जाती रही,लेंकिन उसकी इस जिद ने आज न जाने कितने बच्चों की जिंदगियां संवार दीं। दुर्जनपुर गांव की रहने वाली दलित लड़की जिसके सपने बड़े थे,लेकिन परिवार अपनी इस बिटिया के साथ खड़ा था। उसने जैसे ही अपने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की सरकारी नौकरी लग गई। गांव में ही कम्यूटर लेब अस्सिटेंट बन गई। वह शहर जाते वक्त कुछ बच्चों के हाथों में कटोरे देखती तो उसके मन में एक टीस उठाती थी। वह कैसे इनके हाथों से कटोरे छुडवाए।

उसने अपने ही गांव के पास के कुछ बच्चों से शुरुआत की। अनु ने पांच बच्चों से इसकी शुरुआत की। इसके बाद उसने शहर की तरफ रुख किया।  झुग्गिसरें में रहने वाले बच्चों की मां से मिली, लेकिन उससे सवाल किया जाता कि उनके पास बच्चे रोज शाम को दो सौ रुपए लेकर आते हैं। अगर इन्हें स्कूल में डाला तो उन्हें क्या मिलेगा। अनु ने हार नहीं मानी और जैसे तैसे उनके परिजनों को मना लिया। फिर क्या था कुछ लोगों ने भी उसका साथ दिया मुहिम रंग लाई और बन गयी एक संस्था। 

इस संस्था के दो सौ से अधिक बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। करीब पचास बच्चों के एक बैज को अनु पढ़ा रही है। इसने बताया कि इसके लिए उसने कई चुनौतियों का सामना किया। उसकी सगाई हो चुकी थी ससुराल वालों को ये सब रास नहीं आया और उसको साफ कह दिया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि समाज सेवा करो या घर बसाओ। अनु ने शादी से इनकार कर दिया। यही नहीं, उसकी नौकरी भी लग गई थी। वह भी इस काम के कारण जाती रही। अनु इन बच्चों को पढ़ाने में तल्लीन रहती थी और नौकरी का उसके पास समय नहीं था।

 बहरहाल, आज अनु इस काम को लेकर बहुत खुश है। उसका कहना है कि वे लोग जैसे तैसे खुद ही पैसे का अरेंजमेंट करते हैं। महीने भर में 30 हजार रुपए लगते हैं जिसका वहन वे खुद ही करते हैं। सारंग,कविता आदि वे बच्चे हैं जो पढ़—लिखकर अधिकारी बनने का सपना देख रहे हैं।

अनु के पिता सरकरी नौंकरी में हैं। उनका तबादला कोलकता में हुआ, लेकिंन इस सबके बावजूद मां ने अपनी बेटी के हौसलों को उड़ान दी। वे हर समय उसके साथ है। गांव वालों को भी अनु को नाज हे। उनका कहना है कि अगर उसे सरकारी सहायता मिलती तो इस योजना को और मतबूती मिलती।

 
 

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