Edited By Gaurav Tiwari, Updated: 26 Sep, 2024 06:07 PM
प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं और ऐसे हर मौके पर सरकारी अस्पतालों में आपातकालीन उपचार की कलई खुल जाती है। लिहाजा भारत के अस्पतालों में आपदा से निपटने की तैयारी को लेकर चिंता बढ़ना लाजमी है।
गुड़गांव, (ब्यूरो): प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं और ऐसे हर मौके पर सरकारी अस्पतालों में आपातकालीन उपचार की कलई खुल जाती है। लिहाजा भारत के अस्पतालों में आपदा से निपटने की तैयारी को लेकर चिंता बढ़ना लाजमी है। दरअसल ये अस्पताल ही तो हैं जहां आपदा पीड़ित लोग सबसे जरूरी राहत - उपचार के लिए आते हैं। लेकिन आज अधिकतर अस्पताल किसी बड़ी आपदा से निपटने के लिए कतई तैयार नहीं हैं और उनमें सुविधाओं का भी काफीे अभाव है।
इस मामले में चोटी के सरकारी अस्पताल भी अपवाद नहीं हैं। उनके पास आपदा प्रबंधन योजनाएँ (डीएमपी) तो हैं पर ये अक्सर कागज़ों पर दिखती हैं और शायद ही कभी कारगर होती हैं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण दिल्ली के विवेक विहार स्थित बेबी केयर न्यूबॉर्न अस्पताल में देखने को मिला जहां 26 मई, 2024 को आग लगने की घटना में 8 नवजात निर्दोष शिशुओं की जान चली गई। आपदा योजना और इसकी वास्तविक तैयारी के बीच यह भयानक अंतर काफी दुखद भी है। तो इस दिशा में कुछ ठोस कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? एक और आपदा का इंतज़ार तो नहीं है?
आपदा से निपटने की तैयारियों में कमी के अन्य उदाहरण भी कम परेशान करने वाले नहीं हैं। दिल्ली में ही 2023 की बाढ़ में जब निचले इलाके बुरी तरह डूब गए तो सुश्रुत ट्रॉमा सेंटर के 40 से अधिक मरीज़ों को तत्काल दिल्ली के एलएनजेपी अस्पताल में भेजना पड़ा क्योंकि ट्रॉमा सेंटर में पानी भर गया था। यह बुनियादी सुविधा में कमी की एक अन्य मिसाल है। इसी तरह 2022 में जबलपुर के न्यू लाइफ़ मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल में आग लगने से 8 मरीज़ों की मौत हो गई, जबकि उसी साल असम में आई भीषण बाढ़ की चपेट में आए 150 बिस्तरों के कैंसर अस्पताल में मरीजों को सड़कों पर कीमोथेरेपी देनी पड़ी। एक अन्य दुखद घटना 6 नवंबर, 2021 की है जब अहमदनगर सिविल अस्पताल के आईसीयू में आग लग गई, जिससे 11 लोगों की जान चली गई। महाराष्ट्र के भंडारा डिस्ट्रिक्ट जनरल अस्पताल में 9 जनवरी, 2021 को आग लगने से 10 नवजात शिशुओं की मौत हो गई और सात अन्य घायल हो गए। ये घटनाएं देश के अस्पतालों की गंभीर कमियां दर्शाती हैं।
किसी आपदा का इन्फ्रास्ट्रक्चर पर तुरंत बुरा असर पड़ता है। साथ ही, सार्वजनिक सेवाएं बाधित होती हैं और सबसे अधिक बोझ तो स्वास्थ्य सेवा पर पड़ता है। इसके अलावा, महामारी फैलने का खतरा और जोखिम के मामले बढ़ने से स्वास्थ्य सेवाएं, जो पहले से लचर हैं, अधिक गहरे संकट में आ जाती हैं। ऊपर से मरीज और स्वास्थ्य सेवा देने वाले भी एक ट्रौमा से गुजरते हैं जिसके चलते शारीरिक जख्म से बढ़ कर कई दूरगामी कठिनाइयां पैदा हो सकती है।
स्वास्थ्य सेवा में कतई कोई रुकावट नहीं आए यह योजना वैसे तो बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन अक्सर इसकी अनदेखी की जाती है। दरअसल ऐसी योजनाओं में न सिर्फ स्ट्रक्चर की सुरक्षा जरूरी है बल्कि इसके अतिरिक्त अन्य सुरक्षा पर ध्यान देना भी बराबर महत्वपूर्ण है। लेकिन इस बात का अफसोस है कि भारत के अधिकतर अस्पताल का स्ट्रक्चर किसी आपदा का सामना कर ले इतना मजबूत नहीं है। इससे आपदा के दौरान अस्पतालों के कारगर होने को लेकर चिंताएं हैं। यदि अस्पताल का स्ट्रक्चर साथ नहीं दे तो कारगर चिकित्सा सेवा देने की बात कागजों में सिमट कर रह जाएगी।
अब यदि अस्पताल के बिल्डिंग को कुछ नहीं हुआ पर अन्य जरूरी हिस्से जैसे ऑपरेशन थिएटर को नुकसान पहुंचा तो भी सारा काम ठप्प हो सकता है। यह समस्या और बढ़ जाती है यदि अस्पताल का बिल्डिंग बनाते समय सही स्थान नहीं चुना जाता है। कई अस्पताल बनाते समय वहां संभावित प्राकृतिक आपदाओं पर विचार नहीं किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप अस्पताल के स्ट्रक्चर ऐसी घटनाओं से निपटने में सक्षम नहीं होते हैं।
इस संबंध में दिल्ली में साल 2016 और 2017 के बीच एक शोध किया गया जिसके नतीजे काफी चिंताजनक हैं। दरअसल अस्पताल के कर्मचारी और आगंतुक स्ट्रक्चर की सुरक्षा सिर्फ बाहरी तौर पर देखते हैं। वे अंदर-बाहर हर दृष्टिकोण से सुरक्षा को लेकर अनजान दिखते हैं। लेकिन सुरक्षा की यह सतही समझ इस तथ्य पर जोर देती है कि सभी अस्पतालों के स्ट्रक्चर की संपूर्ण सुरक्षा का अविलंब आकलन करना अत्यावश्यक है।
बुनियादी ढांचों के अतिरिक्त अन्य पहलुओं की सुरक्षा पर ध्यान देना भी किसी आपदा से निपटने के लिए जरूरी है जबकि इसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। भूकंप और आग जैसी आपदाओं में लोग फाल्स सीलिंग और अस्थायी फर्नीचर जैसे गैर-बुनियादी ढांचों की वजह से भी काफी जख्मी होेते हैं। ऐसे में जहां भूकंप अधिक आते हैं वहां के अस्पताल भूकंप के तुरंत बाद अस्त-व्यस्त हो जाते हैं क्योंकि उनके अंदर चीजें गिर कर बाहर निकलने का रास्ता रोक देती हैं और आने-जाने में बाधा डालती हैं। पानी की टंकियाँ और एयर कंडीशनिंग यूनिट जैसी बाहरी चीजें काफी जोखिम पैदा करती हैं क्योंकि वे मजबूती से अपनी जगह कायम नहीं रह पाती हैं। इनकी पकड़ मजबूत करने के लिए दिल्ली के कुछ अस्पतालों जैसे कि राष्ट्रीय टीबी संस्थान और लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल ने विशेष उपाय किए हैं। लेकिन ये उपाय अभी तक अस्पतालों के लिए अनिवार्य नहीं किए गए हैं।
आपदाओं के दौरान एक अन्य खास वजह से संशय बढ़ जाता है जो अस्पतालों के आपातकालीन कोड में भिन्नता होना है। अलग-अलग अस्पताल के कोड अलग-अलग होते हैं तो इससे आगंतुकों और आपातकालीन कर्मचारियों के लिए अनावश्यक कठिनाई होती है। इससे तुरंत उपचार शुरू करना कठिन होता है। अस्पतालों में सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग बढ़ता जा रहा है और इसके साथ डेटा सुरक्षा के सवाल भी उठ रहे हैं। अधिकतर अस्पताल डेटा बैकअप अपने परिसर में रखते हैं जो आपदा के दौरान नष्ट हो सकता है। वैसे तो अस्पताल की आपदा प्रबंधन योजना के बारे में एनडीएमए, भारत सरकार के दिशा-निर्देश हैं, लेकिन उन्हें लागू करने के लिए अभी बहुत कुछ करना है। कई अस्पतालों के पास बकायदा योजनाएं तैयार हैं लेकिन अधिकतर की योजनाओं में ईंधन और उपकरण के बैकअप जैसे जरूरी पहलू छूट गए हैं। यह खासकर 100 से अधिक बिस्तर वाले अस्पतालों में देखा गया है। उदाहरण के लिए बहुत-से अस्पतालों में बिजली का बैकअप तो है, लेकिन बिजली गुल होने पर लंबे समय तक बैकअप के लिए पर्याप्त ईंधन नहीं रहता है।
आपदा से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर परीक्षित कुछ उपाय हैं जो अपना कर भारत के अस्पताल आपदा से लड़ने के लिए अधिक तैयार हो पाएंगे। यदि अस्पताल निचले इलाके में हैं, जहां बाढ़ का अधिक खतरा है, तो स्वचालित फ्लड गेट लगा सकते हैं। बाढ़ आने की चेतावनी देने के लिए हाइड्रोलॉजिकल सेंसर लगा सकते हैं और फिर बाढ़ का पानी निकालने के लिए सेंसर वाला पंपिंग स्टेशन बनाना काफी सुरक्षा दे सकता है। तटीय क्षेत्रों में अस्पताल के बिल्डिंग का एयरोडाइनामिक डिजाइन बनाने के साथ साइक्लोन-रेसिस्टेंट ग्लास और रूफ लगाने से तूफानों की त्रासदी कम हो सकती है। एक अन्य उपाय तूफानी लहरों के लिए बैरियर बनाना है जिससे तटीय बाढ़ से बचा जा सकता है।
अस्पताल में बिजली गुल होने से सारा काम रुक जाता है। यह खास कर लाइफ-सपोर्ट सिस्टम के लिए अधिक खतरनाक हो जाता है। अस्पताल का अपना माइक्रोग्रिड हो, जो बिजली के मुख्य ग्रिड से स्वतंत्र हो कर अपना काम करे, तो बैकअप मिलने का भरोसा रहेगा। इससे बिजली पर आधारित इन्फ्रास्ट्रक्चर नुकसान से बच जाएगा। भारत में जहां आपदाओं का खतरा बना रहता है, हमारे अस्पतालों को इसके मद्ेदनजर मजबूत बनाना होगा। देश में स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे सिर्फ नियामक शर्तें पूरी करें, हमें इससे आगे बढ़ कर मजबूत, व्यावहारिक उपाय करने होंगे जो सभी आपदाओं से निपटने में सक्षम हों, चाहे आपदा प्राकृतिक हो या फिर मनुष्य की वजह से आई हो। यह मरीजों और स्वास्थ्य सेवा कर्मियों दोनों की सुरक्षा के लिए जरूरी है और आपदा की कठिन घड़ी में स्वास्थ्य सेवा की पूर्णता बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।