अब ‘दिहाड़ीदार’ हुए कार्यकर्ता, मोलभाव में लग रहे ‘नारे’

Edited By Shivam, Updated: 10 Apr, 2019 01:47 PM

workers being labour

आजकल बिजनैस मॉडल के रोल पर रैलियों का भी प्रबंध होने लगा है। यह रिवाज पहले दिल्ली में था जो धीरे-धीरे दिल्ली के आस-पास के राज्यों में फैलता रहा। दूर के राज्यों में रैलियों का प्रबंध इसी तर्ज पर होने लगा है। कार्पोरेट घराने या किसी बड़ी कंपनी की जब...

पानीपत (खर्ब): आजकल बिजनैस मॉडल के रोल पर रैलियों का भी प्रबंध होने लगा है। यह रिवाज पहले दिल्ली में था जो धीरे-धीरे दिल्ली के आस-पास के राज्यों में फैलता रहा। दूर के राज्यों में रैलियों का प्रबंध इसी तर्ज पर होने लगा है। कार्पोरेट घराने या किसी बड़ी कंपनी की जब बैठक होती है तो सब पहले से तय कर लिया जाता है। वहीं कोई बड़ा जलसा करना है तो उसके लिए कंपनी मैनेजमैंट की तरह कार्य किया जाता है। राजनीतिक पाॢटयों के नेताओं को भी यह तरीका लुभाने लगा है। हरियाणा में भी अब यहां तक रुझान हो गया है कि टैंट, स्टेज के प्रबंधन के साथ-साथ कुॢसयों पर बैठने के लिए आदमियों का प्रबंध भी किया जाने लगा है।

 इतना ही नहीं किसी कालोनी, गांव या शहर से गाडिय़ों के साथ काफिला निकालने, गाडिय़ों के आगे-पीछे झंडे, बैनर, पोस्टर लगाकर आना, रैली में कितने घंटे तक बैठना है, कितनी बार नारे लगाने हैं, कब तक रुकना है आदि के हिसाब से रैलियों में कार्यकत्र्ताओं का प्रबंध किया जाने लगा है। धीरे-धीरे यह बिजनैस मॉडल के रूप में आगे बढ़ रहा है। यह सब दाम में होता है, सबके रेट अलग-अलग तय हैं। महिलाओं, युवकों, बुजुर्गों आदि का इसमें प्रबंध किया जाता है। लेबर तबका, मजदूर, ग्रामीण या शहरी इसमें हर प्रकार के वर्ग का प्रबंध किया जाता है। सबके रेट भी अलग-अलग तय हैं। कम से कम 500 रुपए से लेकर 1000 प्रति व्यक्ति का इसमें खर्च होता है। कुछ खास जगहों पर रेट बढ़ भी जाता है। गाडिय़ों की दूरी के अनुसार तेल का खर्च अलग से देना होता है। 

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